दुविधा

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Credit : Pexels

कभी-कभी दुविधा में पर जाता हूँ,
मित्र, परिवार औ’ संसार होते हुए भी
ख़ुद को कहीं दूर तटस्थ पाता हूँ ।

कभी-कभी खुद से डर जाता हूँ,
एक जगह आंखों को बंद कर,
ख़ुद को कहीं दूर क्षितिज पे पाता हूँ।

कभी-कभी भीड़ में अकेला हो जाता हूँ,
वो, वे और सब, इतने लोगों को देख,
चुपचाप और बरबस खामोश हो जाता हूँ।

कभी-कभी पीछे आना ठीक लगता है,
खुद को धोखा देना और छल करना,
एक जद्दोजहद में खोया ही रह जाता हूँ।

कभी-कभी उम्र अपनी पूरी लगती है,
एक बार मीटकर जी जाना चाहता हूँ,
मगर हरबार दुविधा में पर जाता हूँ -2

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