इस बार का JNU चुनाव क्यों रहा बहुजनों के लिए खास, जानिए

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Pic Credit : Indian Express

जब भी हम जेएनयू की बात करते हैं, हमारे जेहन में एक प्रगतिशील विचार उत्पन्न होता हैं। जहां आज भी थार, स्कॉर्पियो, लग्जरी होटल, फिल्मों के दम पर नहीं विचारों पर चुनाव लड़ा जाता हैं। ठीक उसी प्रकार इस बार भी 4 साल के लम्बे अरसे के बाद जेएनयू में चुनाव संपन्न हुआ। लेकिन इस बार डफ़ली की थाप, लाल सलाम, जय भीम, जय मंडल, जय श्री राम, वन्दे मातरम् के नारों के बीच यह बात स्पष्ट हो गया कि चाहे आप किसी भी खेमे के क्यों न हों, बहुजनो के सपोर्ट के बिना चुनाव जीतना मुश्किल हैं, और यह बात स्पष्ट होता हैं जब लगभग सारे संगठनों ने बहुजन कैंडिडेट घोषित किए।

कौन थे उम्मीदवार?

यदि बात करे हम BAPSA की तो BAPSA एक अंबेडकरवादी संगठन हैं, 2015 से लेकर 2024 तक बापसा ने बहुजन कैंडिडेट को ही अध्यक्ष का उम्मीदवार बनाया है चाहे वह चिन्मया महानंद हो या राहुल सोनपिंपले यह सब बहुजन समाज से आते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इस बार लेफ्ट यूनिटी ने भी एक दलित उम्मीदवार दिया, धनंजय जो बिहार के दलित है और वह 27 सालों का रिकॉर्ड तोड़ कर जेएनयू के दलित अध्यक्ष बने हैं। वामपंथी विचारधारा वैसे तो देश–विदेश के हाशिए लोगो की बात करता हैं लेकिन इस विचारधारा का नेतृत्व हमेशा उच्च जाति के व्यक्ति ही करते आए हैं चाहे वो कन्हैया कुमार, हो या मोहित कुमार पांडे या आईसी घोष। लेकिन कैंपस में बहुजनो की तादाद और देश में चल रहे लगातार जातीय जनगणना की मांग एवम कैंपस में आंबेडकरवाद के बढ़ते प्रभाव ने लेफ्ट को विवश कर दिया कि उन्हें अपना नेतृत्व एक दलित को देना पड़ा।
वही हम बात करे कैंपस के राइट विंग यानी की ABVP की तो इस बार उनके उम्मीदवार थे उमेश चंद्र अजमेरा जो की तेलंगाना के आदिवासी समाज से आते हैं, जिस ABVP में वर्षों से ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा हैं चाहे वो निधि त्रिपाठी के रूप में हो या गौरव झा के रूप में उन्हें भी अपने विचारों की पैरोकारिता करने के लिए एक आदिवासी व्यक्ति की जरूरत पड़ी।
अब हम बात करे एनएसयूआई की जो की कांग्रेस की स्टूडेंट शाखा हैं तो इन्होंने ने एक अल्पसंख्यक जुनैद रजा को चुना, जिन्होंने अपने भाषण में भी देश में हो रहे मुसलमानों के साथ अत्याचार और उनकी भागीदारी पर सवाल खड़े किए।
यदि हम बात समाजवादी छात्र सभा की करे तो इस बार के चुनाव में इनका डेब्यू था जिसमे इन्होंने ओबीसी महिला आराधना यादव को खड़ा किया था। फिर हम आते हैं छात्र राजद की ओर तो हम देखते हैं की राजद ने एक अतिपिछड़े पसमांदा समुदाय से आने वाले अफरोज आलम को खड़ा किया।

स्पीच में दलित – पिछड़ों के भागीदारी पर सवाल

हम यह देख चुके हैं कि सभी संगठनों ने बहुजन प्रत्याशी दिए हैं और जब झेलम लॉन में अध्यक्षीय भाषण चल रहा था तब लगभग दो दशकों में लेफ्ट दलितों के उद्धारक के रूप में न दिखकर स्वयं दलितों की आवाज़ दिख रहा था। और अपने स्पीच में लेफ्ट प्रत्याशी ने शिक्षा के बाजारीकरण पर जमकर हमला बोला और कहा कि शिक्षा को बाजारू नहीं होने देंगे ताकि जेएनयू जैसे विश्विद्यालय खुले रहे और देश का हरेक वंचित वर्ग समान रूप से शिक्षा ले सके।
वही बापसा प्रत्याशी ने अपने भाषण की शुरुआत जय भीम, हूल जोहर, जय फूले के नारों से की और यह बात स्पष्ट कर दिया कि वह इस देश के आदिवासी हैं और यहां के स्थानीय हैं, उनकी गिनती हिंदुओं में न की जाए, विश्वजीत मिंजी ने इस बात को भी स्पष्ट कर दिया कि वह दूसरे खेमे से खड़े दलित —बहुजन प्रत्याशी के खिलाफ नही हैं, वह उस पार्टी के खिलाफ हैं जो बहुजनों को चमचा बनाते हैं। विश्वजीत को भले हीं इस बार वोट कम मिले हों, लेकिन बिश्वजीत के इरादों में कोई कमी नहीं थी उन्होंने उस मंच से विश्विद्यालयों में आदिवासियों के भागीदारी को सुनिश्चित किया हैं।
अब हम बात करेंगे एबीवीपी के प्रत्याशी उमेश की जिन्होंने बताया कि वह तेलंगाना के आदिवासी समाज से आते हैं और बचपन में उनकी मां को धर्मांतरण के लिए विवश किया गया, चूंकि वो मौजूदा सरकार की पैरोकारी कर रहे थे इसीलिए उन्होंने अपने भाषण में उन्हीं मुद्दों पर बात की जैसा मौजूदा सरकार रखना चाह रही हैं उन्होंने कहा कि हम यदि चुन के आते हैं तो कैंपस के इंफ्रास्ट्रक्चर पर ध्यान देंगे। उनके मुद्दे बाकी प्रत्याशियों से भिन्न थे और वह लेफ्ट प्रत्याशी द्वारा हरा भी दिए गए हैं लेकिन इस बात को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता हैं की कैंपस में राइट विंग का दबदबा बढ़ते जा रहा हैं और उनके वोट 1,000 से बढ़कर 2,000 के लगभग हो रहे हैं।
अब हम आते हैं समाजवादी छात्र सभा की उम्मीदवार आराधना यादव पर, जो अकेली महिला प्रत्याशी थी, लेकिन एक बहुजन महिला होने के नाते उन्होंने महिलाओं के हक की बात बहुत ही बुलंदी से रखा और छात्रों से अपील कि की कैंपस को महिलाओं के लिए सुरक्षित रखना हैं, वरना वह दिन दूर नहीं जब बीएचयू जैसे वारदात जेएनयू में भी हो।

वही छात्र राजद के उम्मीदवार अफरोज आलम पसमांदा समुदाय की आवाज़ बने और यह कहा कि की जिनके समुदाय के नाम पर हमारे समाज में गाली पड़ती हैं मैं उसी समाज से आता हूं, उन्होंने अगड़ा बनाम पिछड़ा के नरेटिव को रखा और बहुजनो की हक की मांग की।
जुनैद रजा जो की एनएसयूआई के प्रत्याशी थे ने देश के मुसलमानों की स्थिति पर प्रकाश डाला और लेफ्ट की पॉलिटिक्स पर हमला करते हुए कहा कि दलितों को प्रेसिडेंट बनाने में इन्हें 27 साल लगे तो कहीं मुसलमानों को बनाने में ये लोग 127 साल ना लगा दे।
प्रेसिडेंट स्पीच के अलावा अन्य पदों के उम्मीदवारों ने भी बहुजन मुद्दे उठाए, BAPSA की प्रियांशी आर्या जो इस बार महासचिव का पद भी जीती हैं ने अपने क्वीर—दलित हक के लिए आवाज़ बुलंद की और यह भी बताया की उनके प्रेरणा के श्रोत सावित्री बाई फुले, माता रमाई से लेकर फूलन देवी रही। वही BAPSA के अविचल ने यह बोला की यदि BAPSA कैंपस में चुन के आती हैं तो कैंपस में साफ—सफाई का जिम्मा केवल भंगी समाज नही लेगा, पंडितों को भी लेना होगा।
इन तमाम बातों के बीच यह बात तो स्पष्ट हो चुका हैं कि पहले के मुक़ाबले अब कैंपस के मुद्दों में बहुजनो की भागीदारी एक मुख्य मुद्दा बन गया हैं, लोग अपने आप को समाजवादी बताने के लिए बाध्य हो गए हैं और जातिवाद जैसे कुप्रथा का पुरजोर विरोध भी करने लगे हैं। और BAPSA का पहली बार कैंपस में चुन के आना इस बात का परिचायक हैं कि लोग अंबेडकरवादी विचारधारा का समर्थन करने लग गए हैं, जो की देश के बहुजनो की भागीदारी को सुनिश्चित करेगा और जातिवाद को खत्म करने में सहायक होगा।