Netflix पर एक फ़िल्म रिलीज़ हुई है अमर सिंह चमकीला जो कि पंजाबी गायक अमर सिंह चमकीला की बायोपिक है। यह फ़िल्म सोशल मीडिया पर बहुत ही सुर्खियां बटोर रही है, इसके मुख्य किरदार है, दिलजीत दोसांझ एवं परिणीति चोपड़ा जो अपने अभिनय और गायकी के लिए सराहे जा रहे है, वही इम्तियाज़ अली के स्टोरी टेलिंग अंदाज की भी तारीफ़ हो रही है, और एआर रहमान के म्यूजिक के तो क्या ही कहने। इन सभी तारीफों के बीच एक चीज़ छूट रही है, वह है फ़िल्म की जातीय पृष्टभूमि।
हम ऑडियो विजुअल या प्रिंट मीडिया किसी को भी देख ले, यूट्यूबर्स को दिलजीत दोसांझ के एक्टिंग की तारीफ़ करते हुए सुन सकते हैं, उन्होंने पंजाब के खेत –गांवों की भी तारीफ़ की है, लेकिन किसी ने भी चमकीला के साथ होने वाले जातिगत भेदभावों को उजागर नहीं किया, कुछेक अख़बार चमकीला के बारे में बस यह लिख दिए हैं कि वह एक दलित गायक था, लेकिन क्या सिर्फ़ एक दलित गायक लिखना काफ़ी है। यदि वह दलित नही होता तो क्या उसकी कहानी दूसरी नहीं होती?
फ़िल्म में जातिगत भेदभाव को पूर्णतया नहीं दिखाया जाना
यदि हम फ़िल्म की बात करे तो फ़िल्म में 2–3 ही सीन है, जहां से चमकीला की जातीय पृष्टभूमि का पता चलता है, एक जब वह अखाड़ा मैनेजर से कहता है कि “चमार हू, भूखा नहीं मरूंगा”, दूसरा जब वह अपनी पत्नी को बोलता है कि हम छोटे लोग है, हम गाना नहीं छोड़ सकते है, हम वही गाएंगे जो लोगों को पसंद है। तीसरा जब धर्म के ठेकेदार उसे धर्म का पाठ पढ़ाते हैं, तो ऐसा लगता है की क्या किसी सवर्ण गायक को भी ऐसे ही पढ़ाते होंगेl फ़िल्म में इस पार्ट को अच्छे से कवर नहीं किया गया है कि कैसे एक चमार जाति का रिकॉर्ड सेलिंग आर्टिस्ट सवर्णों को खटक रहा थाl
शहरी सवर्ण मीडिया का जातिगत भेदभाव से अनजान रहना
चमकीला फ़िल्म पर कई यूट्यूबर्स ने अपनी प्रतिक्रियाएं दी है, उन्होंने चमकीला के मर जाने पर सहानुभूति भी प्रकट की है, पर किसी ने भी इस बात पर नहीं ध्यान दिया कि उसकी दलित जाति भी उसके जान की दुश्मन बनी, किसी ने यह क्यों नहीं बताया कि चमकीला के मरने के 35 साल बाद भी क्यों नहीं कोई दोषी पकड़ा गया, क्या कोई सवर्ण गायक मरता तो उसके साथ भी यहीं होता।
हम अक्सर यह भी देखते हैं कि शहरों में पले–बढ़े सवर्ण मीडिया के लोग यह बोलते हैं कि जाति –वाती को वह नहीं जानते है, यह तो गांवों में होता होगा, इसलिए उनके लिए चमकीला की मौत एक सहानुभूति का विषय हो सकता है, जाति का नही l

सवर्ण मीडिया के लिए जातिगत भेदभाव कभी भी प्राथमिक विषय नही
सवर्ण मीडिया के लोग आपको गंगा –जमुनी तहज़ीब की बात करते वक्त दिख जाएंगे, वह भारत में धर्मनिरपेक्षता खतरे में है इसका भी भाषण देते हुए भी दिख जाएंगे लेकिन उनके लिए कभी भी दलित खतरे में नहीं हो सकते है, दलितों की कला, उनकी लोकप्रियता, उनकी जान इनके लिए कभी भी प्राथमिक मुद्दे नही हो सकते है। इन्होंने अपना टाइप पहले ही चुन लिया है कि कोई भी विषय हो उसमें से किसी भी दलित को महान नही दिखाना है।
इनमें से फ़िल्म रिव्यू करते वक्त किसी को भी इस बात का एहसास तक नहीं हुआ कि संगीत की दुनिया कितनी जातिवादी है, और उनमें से कोई दलित गायक विश्व पटल पर अपने आप को कितने संघर्षों के बाद रखता है।
बहरहाल, दलितों को अपने कला का प्रदर्शन दिखाने के लिए, अपना इतिहास बताने के लिए किसी भी सवर्ण मीडिया की आवश्यकता नही है, आज के दौर में हमारे समक्ष अनेक दलित मीडिया है जिन्होंने चमकीला के जातिगत भेदभाव पर प्रकाश डाला है, जिन्होंने यह बताया है कि सारे धार्मिक भाषण एक दलित गायक को ही क्यों दिए जा रहे थे, जिन्होंने सरकार से सवाल किया है कि 35 साल बीत जाने के बाद भी चमकीला को इंसाफ़ क्यों नहीं मिला। अब दलित मीडिया को लोगों तक यह बात विस्तृत तौर पर बताना है कि देश के बहुजनों को पूरी तरह से सवर्ण मीडिया का बहिष्कार करना है, क्योंकि इन्हें हमारे संघर्षों को नहीं जानना है, इन्हें उन संघर्षों से इन्हें क्या फ़ायदा मिल सकता है उसमें दिलचस्पी है और हम इनके लिए बस कंटेंट बन कर नहीं रह सकते है।
– ऋतु