पितृसत्तात्मकता, ‘सुंदरता’ का संस्कार और इनका बुना हुआ जाल!

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कुछ बातों और व्यवहार को लेकर हम अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में बड़े ही आश्वस्त रहते हैं। जैसे- परिवार के लगभग सभी निर्णयों का पुरुषों द्वारा लिया जाना। पितृसत्तात्मक समाज, यानि ऐसा समाज जिसमें घर की प्रधानता पुरुष सदस्य (साधारणतया सबसे बुजुर्ग या मुख्य संचालनकर्ता) के पास होती है, में सभी निर्णयों पर पुरुषों का प्रभाव एक सामान्य स्थिति के रूप में स्वीकार्य है अर्थात् हम इसके प्रति पूर्णतः आश्वस्त हैं क्योंकि एक लंबे समय में इसने हमारे पारिवारिक-सामाजिक संस्कारों और मूल्यों को गढ़ा है।

पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों और महिलाओं की पारिवारिक भूमिकाएँ पहले से ही तय होती हैं। पुरुष सामान्यतः घर की आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने के दायित्व का निर्वहन करते हैं और महिलायें घरेलू कार्यों का। अब क्योंकि घर के लड़के को बड़ा होकर घर की आर्थिक ज़रूरतें पूरी करनी होती हैं इसलिए आर्थिक संसाधनों तक पहुँच बनाने के लिए सबसे पहले इसको हासिल करने के आधुनिक साधन- ‘शिक्षा’ तक पहुँच होनी चाहिए, परिणामतः ‘शिक्षा’ तक केवल परिवार के लड़कों की ही पहुँच बनी और लड़कियाँ प्रायः इस साधन से वंचित रही। इस स्थिति ने पुनः परिवार में लड़कों/पुरुष के वर्चस्व को बनाए रखने में मदद की।

इसे एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। आप एक सामान्य पारिवारिक क्रियाकलाप जैसे खाना खाने के बारे में सोचिए, जिसमें खाने की टेबल पर माता-पिता के साथ उनके दो बच्चे एक लड़का और एक लड़की बैठी हो। अब मान लीजिए किसी सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक मुद्दे पर चर्चा/बहस छिड़ गयी, तो बहुत सम्भव है कि लड़का ‘शिक्षा’ तक बनी अपनी पहुँच के कारण अधिक सुदृढ़ तर्कों का प्रयोग करके इस बहस/चर्चा में बाज़ी मार लेगा! और यह घटना उसे पारिवारिक निर्णयों में स्वाभाविक भूमिका प्रदान कर देगी। हालाँकि यह बाज़ी उसने इसलिए नहीं जीती कि वह विशिष्ट गुणों से सम्पन्न है बल्कि इसलिए जीती क्योंकि वह कॉलेज और वहाँ मिले दोस्तों की मंडली में बारंबार इस तरह की चर्चाओं से गुज़र चुका है, और जहाँ तक लड़की की कोई पहुँच नहीं है। यदि लड़की को भी शिक्षा तक बराबर की पहुँच मिली होती तो तब क्या होता? खाने की टेबल पर भाई के तर्कों का जवाब तर्कों से ही दिया जाता, और इसका सीधा परिणाम होता कि अब माता-पिता पारिवारिक निर्णयों में अपनी लड़की से भी सलाह-मशविरा करते। लेकिन हमारे समाज की बद-क़िस्मती है कि अधिकांश परिवार इस स्थिति से सैंकड़ों सालों की दूरी पर खड़े हैं।

ख़ैर वापस मुद्दे पर लौटते हैं। महिलाओं की परिवार में द्वितीयक स्थिति उन्हें हमेशा के लिए पुरुष पर आश्रित कर देती है, और क्योंकि शिक्षा तक पहुँच ना होने के कारण उनका पर्याप्त बौद्धिक विकास नहीं हो पाता फलस्वरूप उनके व्यक्तिगत और पारिवारिक संबंधों का विकास तार्किकता के बजाय भावनाओं की नींव पर गढ़ता है जो विभिन्न स्तरों पर तुलनाओं से प्रेरित ईर्ष्या और द्वेष को जन्म देता है और अंततः पारिवारिक कलहों का कारण बनता है।

संबंधों के गैर-तार्किक होने और पुरुष के अधीन स्थिति के कारण प्रायः महिलाओं की पारिवारिक और सामाजिक प्रतिष्ठा का आकलन ‘सुंदरता’ की डिग्री पर किया जाता है। महिलाओं को ‘सुंदरता’ के आधार पर आकलित करने का एक प्रमुख कारण और भी है। हमारे समाज में एक लड़का और लड़की ग्रैजूएशन तक यानि 18-20 साल की उम्र होने तक केवल अपने निकटस्थ और विस्तारित परिवार की लड़कियों और लड़कों (क्रमशः) के संपर्क में ही आते है अर्थात् उनकी बातचीत केवल अपनी बहनों के साथ ही सीमित रहती है (ध्यान रहे भारत में कोएड स्कूल व्यवस्था बहुत विस्तारित नहीं है और जहाँ है भी वहाँ बहुत से प्रतिबंध आरोपित है)। इसका प्रभाव यह है कि हमारे समाज में एक लड़के की लड़की के बारे में और लड़की की लड़के के बारे में समझ केवल और केवल उनकी शारीरिक पहचान/प्रस्तुति पर आधारित होती है ना कि उनके व्यक्तित्व पर और ठीक यहीं खेल शुरू होता है- सौंदर्य प्रसाधनों का। विभिन्न कंपनी लगातार ‘सुंदरता’ के कृत्रिम संस्कार को प्रेरित करके उपभोक्ता बाज़ार में हज़ारों करोड़ का व्यापार करती हैं। लेकिन यह एक स्वाभाविक सा तथ्य है कि न तो ‘सौंदर्य’ हमेशा बने रह सकता है और ना ही व्यक्तिगत संबंधों की नींव में ‘सुंदरता’ एक मजबूत प्रत्यय है। जैसे-जैसे यह प्रत्यय धूमिल पड़ता जाता है वैसे-वैसे ही पुरुष और स्त्री के संबंधों में दरार पड़ने लगती है और परिणाम आपके सामने है- आज हमारा समाज घरेलू हिंसा के संक्रमण से बुरी तरह त्रस्त है। क्यों? क्योंकि पति-पत्नी के व्यक्तिगत संबंध भी ‘सौंदर्य’ जैसे अस्थायी संस्कार (संस्कार का यहाँ अभिप्राय विशेषता या गुण से है) पर टिके हैं और पारस्परिक संबंध तार्किक नहीं है; तार्किक क्यों नहीं हैं? क्योंकि लड़कियाँ आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं हैं; और ऐसा क्यों है? क्योंकि उनकी शिक्षा तक पहुँच नहीं है; और पहुँच क्यों नहीं है? क्योंकि हम एक ‘पुरुष-प्रधान समाज यानि पितृसत्तात्मक समाज’ में रह रहे हैं।

अब इन उपर्युक्त तर्कों के विरोध में दिखने वाले एक उदाहरण को केस स्टडी के रूप में लेते हैं। वर्ष 2021 में भारत की हरनाज़ संधू मिस यूनिवर्स का ख़िताब जीती! हरनाज़ एक पढ़ी-लिखी महिला हैं लेकिन उन्होंने भी एक ब्यूटी कोंटेस्ट में भाग लिया। तर्क दिया जा सकता है कि उन्हें महिलाओं की द्वितीयक स्थिति से निकले ‘सौंदर्य’ के बेबुनियादी संस्कार को महत्त्व नहीं देना चाहिए था। दरअसल हज़ारों सालों की प्रक्रिया में छोटे-छोटे परिवर्तनों से गुज़रकर ही ‘सौंदर्य’ महिलाओं के सबसे महत्त्वपूर्ण गुण के रूप में जड़ बना है, और साथ ही इस तरह के कोंटेस्ट ही तो महिलाओं के ‘सुंदर’ होने को उनकी सर्वप्रमुख विशेषता के रूप में स्थापित करते हैं। ज़रा इस तरह की प्रतियोगिताओं को आगे बढ़ाने वाली कॉस्ट्यूम और मेक-अप कंपनियों के व्यापार पर नज़र दौड़ा कर देखिए तब पूरी तस्वीर बाहर निकल कर आ जाएगी।

कहने का सार यह है कि हमारे आस-पास ऐसी बहुत सी घटनायें हैं जो बुनियादी तौर पर उन्हीं चीजों को बढ़ावा दे रही हैं जिन्होंने पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की निम्नतर स्थिति को गढ़ा है, लेकिन समय के साथ हम भूल गए हैं कि ‘सुंदरता’ का संस्कार भी एक ऐसा ही संस्कार है जिसने समाज में महिलाओं को पुरुषों के सापेक्ष निम्न स्थिति, द्वितीयक स्तर पर रखा है हालाँकि इसे लेकर हम अब आश्वस्त हो चुके हैं।

– मनीष चौधरी (अध्येता)