क्या रूस– यूक्रेन युद्ध से सभी देश प्रभावित हुए हैं? आइए जानते हैं कि दोनों देश आपस में युद्ध क्यों कर रहे हैं?

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रूस-यूक्रेन युद्ध की शुरुआत 24 फरवरी 2022 को हुई, जब रूस ने यूक्रेन पर सैन्य आक्रमण किया। अब यह युद्ध केवल रूस-यूक्रेन तक सीमित नही है, इसका विस्तार ईरान-लेबनान तक भी हो चूका है, चूँकि रूस-यूक्रेन आर्थिक रूप से सक्षम देश है, जिनकी अर्थव्यस्था पर अन्य कई देश निर्भर है.

जानिए युद्ध का कारण:

रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध के सिर्फ दो कारण है।

1. रूस के पास जरूरत से बहुत ज्यादा जमीन होना, और

2. संयुक्त राज्य अमेरिका ( सं.रा.अ.)  के पास जरूरत से बहुत ज्यादा शक्ति होना।

पृष्ठभूमि

दो ताकतवर केंद्रों का जन्म

वर्ष 1945 में विश्व में दो ताकतवर केंद्रों का जन्म हुआ – वॉशिंगटन डीसी और मास्को। पूर्वी यूरोप के कुछ भागों पर मॉस्को और पश्चिमी यूरोप के कुछ भागों पर वॉशिंगटन डीसी का अत्यधिक प्रभाव हो गया। बाकी बचे यूरोपीय देशों ने या तो वॉशिंगटन डीसी या फिर मास्को का आदेश मानना स्वीकार किया। अब दोनों ताकतवर केंद्र एक दूसरे को हराना चाहते थे। मॉस्को चाहता था कि संसाधनों का समान रूप से बंटवारा हो। यह अपनी विशालकाय ज़मीन बचाना चाहता था। दोनो अपने – अपने लोगो को ज्यादा से ज्यादा अमीर, खुशहाल और प्रभावी बनाना चाहते थे। दोनों केंद्र अपने – अपने नेतृत्व को बचाकर रखना चाहते थे। वॉशिंगटन डीसी चाहता था कि सिर्फ यही परमाणु हथियार संपन्न शक्ति रहे। मास्को विश्व पर मार्क्सवाद और वॉशिंगटन डीसी पूंजीवाद का प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे।

उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो)

वर्ष 1949 में, वॉशिंगटन डीसी को पता चल गया कि मॉस्को चुपचाप परमाणु हथियार बना रहा है, इसलिए उस पर हमला कर उसे रोकने के लिए अप्रैल 1949 में, नाटो नामक सैनिक संगठन का गठन किया और इसका नेतृत्वकर्ता बन गया। इस समय तक मास्को भी 15 देशों के संघ, सोवियत संघ, का नेतृत्व करने लगा था।

1949 में ही, नाटो के गठन से कुछ दिनों के बाद, सोवियत संघ ने परमाणु हथियार बना लिया। नाटो ने मान लिया कि अब देर हो चुकी है। अतः इसने अन्य तरीकों से सोवियत संघ को हराने का निर्णय लिया। नाटो ने तुरंत  लंदन को परमाणु हथियार बनाना सीखा दिया। अब सोवियत संघ ने सोचा कि क्या दोनो, वाशिंगटन डीसी और लंदन, मिलकर हमला करेंगे?  मास्को ने अपनी सैनिक क्षमता बढ़ाने पर ज्यादा ध्यान दिया। वही, वॉशिंगटन डीसी और लंदन निश्चिंत होकर अपनी – अपनी मानव संसाधनों पर ज्यादा ध्यान दे रहे थे।

युद्ध के नए तरीके

मनुष्य प्राचीन काल से आपस में युद्ध लड़ रहे हैं। सिर्फ युद्ध का तरीका बदलता है, मंशा नही; मंशा हमेशा एक ही रहता है: अपने लोगों की इच्छाओं की पूर्ति करना। मतलब, जिस दिन इच्छाओं का अंत हो जाएगा, उस दिन युद्ध का भी अंत हो जाएगा… परमाणु हथियारों के कारण, नाटो और सोवियत संघ के बीच युद्ध होने की संभावना ख़त्म हो गई। अतः दोनों ने एक दूसरे को कमजोर करने की नीति अपनाई। दोनों ने एक दूसरे पर प्रतिबंध लगाए, गृह युद्ध और असामाजिक व अराजक तत्वों को समर्थन दिया, एक दूसरे के दुश्मनों को समर्थन दिया।

नाटो ने कहा कि सोवियत संघ “बर्बर”, “असभ्य”, “असफल” और “बहिष्कृत” है। वहीं, सोवियत संघ ने कहा कि नाटो “साम्राज्यवादी”, “उपनिवेशवादी”, “चोर”, “लुटेरों का सरदार” और “पूंजीवादी” है। नाटो ने एक नई नीति बनाई: ज्यादा से ज्यादा समर्थक बनाओ → सोवियत संघ को बहिष्कृत करो → सोवियत संघ से नाराज उसके दोस्तो को शर्तो पर आर्थिक सहायता दो → सोवियत संघ के गिडगिडाने का इंतजार करो।  सोवियत संघ को राजनीतिक व आर्थिक सहानुभूति से वंचित करने की नीति अपनाई।

ताकत का एकमात्र केंद्र और आर्थिक कंगाली

वर्ष 1991 में, सोवियत संघ 15 देशों में बंट गया। अब दुनिया पर ताकत का सिर्फ एक ही केंद्र रह गया: वॉशिंगटन डीसी। उन 15 देशों में रूस, बेलारुस, जॉर्जिया और यूक्रेन भी थे। जब इन्होंने अपनी जनता को आगे बढ़ाना चाहा तो पता चला कि विकास के लगभग सभी महत्वपूर्ण संसाधन नाटो के कब्जे में हैं। 1991 से ही, सभी 15 देश आर्थिक कंगाली और आंतरिक विद्रोह में फंस गए। उधर, नाटो ने अन्य 14 देशों को रूस के विरुद्ध खड़े करने का नया प्रयास शुरू कर दिया। यूक्रेन में नाटो को सफलता मिली क्योंकि:

  • यूक्रेन रूस से पुराना देश है। रूस का जन्म यूक्रेन से लगभग 600 साल बाद हुआ।
  • यूक्रेन के अनेक लोग, आर्थिक तंगी से परेशान थे।
  • यूक्रेन में यूक्रेनी भाषा को राष्ट्रीयता का प्रतीक माना जानें लगा। अल्पसंख्यक रुसी भाषी नागरिकों पर संदेह किया जाने लगा।

यूरोपीय संघ ( ईयू ) का जन्म

1993 में, फ्रांस और जर्मनी ने नाटो से आर्थिक आजादी प्राप्त करने के लिए यूरोपीय संघ (ईयू) का गठन किया। अब तक दुनिया के दो ताकतवर केंद्र बन गए थे: वॉशिंगटन डीसी और यूरोपीय संघ । अब दोनों मिलकर अपने लोगों की सुख, समृद्धि, शांति और विकास को बनाए रखने के लिए संसाधनों की खोज में लग गए। वॉशिंगटन डीसी के पास तो संसाधनों की कमी नहीं थी, लेकिन यूरोपीय संघ को संसाधनों की सख्त जरूरत थी। संसाधन तो पहले से ही आ रहे थे: दक्षिण अमेरिका से कठपुतली सरकारों के माध्यम से, अफ्रीका से कठपुतली सरकारों और आतंकियों के माध्यम से, और पश्चिम एशिया से इजराइल के माध्यम से; फिर भी संसाधनों की और ज्यादा जरूरत थी। इसीलिए, यूक्रेन को बकरा बनाने का निर्णय लिया गया। संसाधनों से परिपूर्ण और जरूरत से ज्यादा जमीन का मालिक यूक्रेन के लोगों को यूरोपीय संघ में शामिल होने का लालच दिया गया। यूक्रेन के लोग इसमें शामिल होने के प्रश्न पर बंटे हुए थे।

यूक्रेन और नाटो

2010 में, यूक्रेन में राष्ट्रपति का चुनाव होने जा रहा था। राष्ट्रपति जनता द्वारा चुने जाते थे। नाटो और ईयू चाहते थे कि यूक्रेन ईयू में शामिल हो जाए। वहीं, रूस सोचता था कि यदि यूक्रेन ईयू में शामिल हो गया, तो बाद में नाटो में भी शामिल हो जाएगा। इस चुनाव में, विक्टर यानुकोविच  (रूस समर्थक) जीत गए और यूलिया टायमोशेंको (यूरोपीय संघ समर्थक) हार गई। रूस और नाटो दोनों ने इस चुनाव को प्रभावित किया था। अब नाटो ने रूस समर्थक राष्ट्रपति का तख्तापलट कराने की तैयारी पूरी कर ली और उचित समय का इंतजार करने लगा।

तीसरा ताकतवर केन्द्र

सितम्बर 2013 में, दुनिया की एक पुरानी विलुप्त ताकत अपनी आगमन की घोषणा करती है। चीन ने घोषणा की कि उसके पास बहुत पैसा, संसाधन, क्षमता, और निडरता है; वह बिना नाटो से डरे गरीब देशों को मदद करने के लिए तैयार है। अब, युक्रेन की सरकार सोचने लगी कि क्या उसे चीन की मदद से विकास करना चाहिए और क्या यह यूरोपीय संघ  तथा नाटो के दबाव से बाहर निकलने का सही समय है ?

तख्तापलट

जब नवम्बर 2013 में, रूस समर्थक यूक्रेनी राष्ट्रपति ने यूरोपीय संघ में शामिल होने से इनकार कर दिया तो राजधानी में उनके खिलाफ़ विद्रोह हो गया। फरवरी 2014 में, तख्तापलट हो गया। विक्टर  यानुकोविच रूस भाग गए। यूक्रेन में अल्पसंख्यक रुसी भाषी नागरिकों को चुन – चुन कर अपमानित किया जाने लगा। विक्टर  यानुकोविच के समर्थको ने भी तख्तापलट के विरोध में हिंसक प्रदर्शन शुरु कर दिया।

क्रीमिया

रूस समर्थक यूक्रेन के नागरिक धीरे–धीरे दक्षिण– पूर्वी यूक्रेन में जाकर बसने लगे क्योंकि वहां इनके समुदाय की संख्या ज्यादा थी और वह भाग रूस से सटा हुआ था। यूक्रेन के दक्षिण में स्थित क्रीमिया ( 4.4%  भूमि )  के रुसी भाषी अल्पसंख्यक यूक्रेनी नागरिकों ने यूक्रेन से आज़ाद होने और रूस में शामिल होने की घोषणा कर दी। तुरंत, रूस ने क्रीमिया पर कब्ज़ा कर लिया ( मार्च 2014) । पूर्वी यूक्रेन के रुसी भाषी अल्पसंख्यक यूक्रेनी नागरिक भी ऐसा ही करना चाहते थे। अब यूक्रेन ने, क्रीमिया को वापस लेने के लिए और पूर्वी यूक्रेन के विद्रोह को दबाने के लिए प्रयास शुरू किया। उधर रूस ने भी क्रीमिया को बचाने के लिए और पूर्वी यूक्रेन को हड़पने के लिए तैयारी शुरू कर दी।

रूस क्यों ‘हड़प’ रहा था ?

ऐसा था क्योंकि यूरोपीय संघ और नाटो उन देशों को अपना सदस्य नहीं बनाते हैं जो दिव्यांग है।

दोनों हाथ मे लड्डू

अब नाटो, यह सुनिश्चित करने लगा कि यूक्रेन क्रीमिया को वापस लेने का प्रयास करता रहे, नाटो से उधार लेता रहे, और उधार चुकाने के लिए अपनी संपत्तियां नाटो के पास गिरवी रखता रहे।

सुरक्षा की असली गारंटी

वर्ष 2019 में, यूक्रेन की जनता ने वोलोडिमिर ज़ेलेंस्की को भारी बहुमत से अपना राष्ट्रपति चुना। ज़ेलेंस्की ने सरकारी पदों पर अपने ऐसे दोस्तों को नियुक्त करना शुरू कर दिया जो नाटो और रूस के जाल में फँसते चले गए। ज़ेलेंस्की ने भी नाटो में शामिल होने का बहुत प्रयास किया।  वर्ष 2021 मे, ज़ेलेंस्की परमाणु हथियार प्राप्त करने के विषय में सोचने लगे। वर्ष 1991 से ही यूक्रेन के नेता जानते थे कि नाटो अपने लोगों की समृद्धि को बनाए रखने के लिए विशाल यूक्रेन के संसाधनों को पाना चाहता है। इसीलिए, यूक्रेन के शुरुआती नेताओ ने सोवियत संघ के यूक्रेन में मौजूद परमाणु हथियारों को बचाने का पूरा प्रयास किया ताकि यूक्रेन भविष्य में अपनी रक्षा आसानी से कर सके। लेकिन, रूस और नाटो ने मिलाकर ‘गारंटी’, ‘भरोसा’, ‘शपथ’, ‘ज्यादा दान’, ‘वादा’, ‘घोषणा’, ‘संधि’, ‘आश्वासन’, ‘वित्तीय सहायता’, और ‘मुआवज़ा’ जैसे शब्दों के जाल में यूक्रेन को फँसा कर इसका परमाणु हथियार क्षीण लिया।

24 फरवरी 2022 को, रूस ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए यूक्रेन पर हमला कर दिया। इसी के साथ यूक्रेन नाटो की सदस्यता, यूरोपीय संघ की सदस्यता और अपने ही संसाधनों तक पहुंच से हमेशा के लिए वंचित हो गया।

डिंपल कुमार, सामाजिक-राजनैतिक एवं आर्थिक मुद्दों पर लिखते है.