आज भारत के अधिकांश जगह पर खासकर उत्तर भारत में करवा चौथ का त्योहार मनाया जा रहा है, जिसमें महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए पूरे दिन निर्जला व्रत रखती है और रात में चांद देख कर अपना व्रत खोलती है। पितृसत्तात्मक भारत में यह कोई असमान्य बात नही है, और लोगों ने इसे खुशी–खुशी अपना भी लिया है। क्योंकि भारत के कई कोनो में करवा चौथ जैसे त्योहार मनाए जाते है, जो पति एवं पुत्र के लिए रखे जाते है, जैसे कि तीज, जीवित्पुत्रिका, अहोई अष्टमी इत्यादि ऐसे माहौल में करवा चौथ के लिए स्वीकृति कोई असाधारण बात नही है।
क्या करवा चौथ का विस्तार
करवा चौथ, खासकर उत्तर भारत का त्योहार था, बाद में फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ और एकता कपूर के सीरियल ने इसे घर–घर तक पहुंचाया और आज के डिजिटल दुनिया में यह दुनिया के भी कई कोनो तक पहुंच चुका है, चूंकि ऐसे कई त्योहार मनाए जाते रहे है और समाज में पितृसत्ता की स्वीकृति पहले से ही विद्यमान है तो यह त्योहार सहजता से लोगों के घरों तक पहुंच गया क्योंकि पति के लिए एक दिन व्रत रखना भारत में समान बात है इसमें नाही पुरुषों को कुछ अजीब लगा नाही महिलाओं को।
करवा चौथ और विवाद
आज के जमाने मे करवा चौथ को ‘शहरी कपल’ प्यार का दिन मानते है, वह ऐसी दलील देते है कि यह प्रेम का दिन है जिसमें वह अपने साथी के प्रति प्रेम को जाहिर करते है, और कुछ फेमिनाजी पति यह भी कहते है कि वह अपनी पत्नी का साथ देने के लिए खुद भी व्रत कर रहे है, जिससे वह समाज में समानता का संदेश देना चाह रहे है कि अब पुरुष पितृसत्तात्मक नही है। हाल ही में कुछ सेलिब्रिटी जैसे कि विराट कोहली, निक जोनस, राघव चड्ढा ने भी व्रत रखकर अपने पत्नी के प्रति प्रेम को जाहिर किया, जिसे लोगों ने खूब सराहा और उन्हें प्रगतिवादी का टैग भी दिया गया।
लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या पुरुषों का करवा चौथ व्रत रखने से समाज में समानता आएगी? क्या इससे वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था को खत्म कर रहे है? ऐसे प्रथाओं को शुरू करने से पहले महिला एवं पुरुष दोनों को विचार करना चाहिए कि उनके इस नए प्रथा से समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की जड़े और मजबूत होंगी, क्योंकि आप इस प्रथा के पीछे पितृसत्तात्मक भावों को नजरअंदाज कर उसे और बढ़ावा दे रहे है।
करवा चौथ और बाजारीकरण
बाजारीकरण एवं पितृसत्तात्मक व्यवस्था एक दूसरे के पूरक बनते जा रहे है, यह व्यस्था थी तभी बाजारों में बढ़त आई और बाजारों ने इसका इतना प्रचार–प्रसार किया कि यह दुनिया के हर कोने तक पहुंचा, हम देख सकते है कि करवा चौथ के समय बाजार सज जाते है, मेंहदी वाले के भाव बढ़ जाते है, पार्लर में लाइन लग जाती है, साड़ी–कपड़ों की दुकानों में भीड़ लग जाती है, ऐसी व्यस्थाएं पितृसता के साथ –साथ पूंजीवाद को भी बढ़ावा दे रही है जो समाज में असमानता की खाइयों को और गहरा कर रही है।
इस बात में शंका नही होनी चाहिए कि व्यक्ति को अपने साथी के प्रति प्रेम जाहिर नही करना चाहिए और प्रेम के लिए उत्सवों पर भी पाबंदी नही होनी चाहिए, लेकिन इन सबकी जिम्मेदारी औरत ही क्यों ले? क्यों व्रत करके प्यार का इज़हार करना है। कुछ लोग यह तर्क देते है कि व्रत करना मेरी निजी पसंद है, यह मेरे स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक होता है, निजी पसंद एवं स्वास्थ्य की बाते तो ठीक है लेकिन क्यों एक निश्चित दिन और एक निश्चित व्यक्ति के लिए व्रत रखना है, किसी भी वैज्ञानिक शोध में इस बात की पुष्टि नही की गई है कि व्रत रखने से आपके साथी ज्यादा जीवित रहेंगे, ऐसा करके महिलाएं अंधविश्वास को बढ़ावा दे रही है।
पुरुष कभी भी उस व्यवस्था को खत्म करना नही चाहेगा जो उसके अस्तित्व को और मजबूत करे, ऐसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को खत्म करने के लिए समाज की पढ़ी–लिखी महिलाओं को आगे आना पड़ेगा, जो अपने समुदाय को यह बताए कि इस अंधविश्वास को बढ़ावा न दे जिससे उनका केवल नुकसान हो।

ऋतु, एक सामाजिक कार्यकर्त्ता है, और इनके लेखन समाजिक मुद्दों पर आधारित है.