शहीद बिरसा अमर रहें!

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Pic credit: Business Standard

आज दिनांक 15 नवम्बर, 2024 को भारत के गौरव, मूलनिवासी समाज में उलगुलान के महानायक,महान योद्धा,बहुजन समाज के महान समाज सुधारक एवं युवा शहीद,धरती के आवा बिरसा मुंडा की 149वीं जयंती के शुभ अवसर पर सभी नागरिकों और विशेषकर मूलनिवासी बहुजन समाज के भाई एवं बहनों की ओर से उनके प्रति शत-शत नमन और हार्दिक श्रद्धांजलि!
भारत के महानायक बिरसा मुंडा का जन्म छोटानागपुर के उलीहातु या चालकाद के बंबा गांव में 15 नवम्बर 1875 ई को हुआ था। 12 वर्ष की उम्र में सिंहभूम के चाईबासा के लूथरन मिशन चर्च में 1886ई में ईसाई धर्म में उन्हें दीक्षा दी गई थी। उनके माता के नाम करमी और पिता का नाम सुगना मुंडा था। उनके दो भाई कोन्ता मुंडा एवं कन्हू मुंडा थे और दो बहनें दस्कीर एवं चंपा थी। चाईबासा के बुरजू छात्रावास में रहकर उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा हासिल की। 1886 से 1890 तक उन्होंने पादरियों के उपदेशों को सुनकर और समझ कर अपने चरित्र एवं व्यक्तित्व का विकास किया| 1890 के बाद उन्होंने पढ़ना- लिखना छोड़ दिया और वे पूरे परिवार के साथ बंदगांव चले गए, जो खूंटी और चक्रधरपुर के बीच में है।

1893ई में बंगाल प्रांत (बंगाल, बिहार एवं उड़िसा) में लार्ड कार्नवालिस ने जमींदारी की भूमि व्यवस्था लागू की थी। जुलाई,1894 ई में अंग्रेजों ने एक नया कानून बनाया जिसके द्वारा आदिवासियों के जंगल एवं जमीन के अधिकार भी जमींदारों के हाथ में सौंप दिया गया। उसके कारण मुंडाओं में भारी आक्रोश की लहर दौड़ गई। पूरे सिंहभूम-रांची क्षेत्र में सभी मुंडा संस्थाओं ने जगह- जगह बैठकें कर, जंगल पर अपने पूर्वजों की भांति अधिकारों को पुनः बहाल करने के लिए आवेदन दिए। पूरे क्षेत्र में फैलती हुई इस अशांति के बीच बिरसा अपने गांव चालकाद चले गए। वहां उन्हें अपने पूर्वजों के अधिकारों एवं आदिधर्म के बारे में सोचने और चिंतन करने के अवसर प्राप्त हुआ। बहुत चिंतन-मनन करने के बाद 1895ई में उन्होंने ‘उलगुलान’ करने का निर्णय लिया कि—

मुंडाओं के सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा की शक्ति पर विश्वास करने के लिए समाज को जागरूक बनाना जरूरी है;
जल,जंगल एवं जमीन पर जनजातियों के अधिकारों को पूर्ववत बनाए रखना है;
चुटिया -नागपुर को अपने पूर्वजों के धरोहर के रूप में बनाए रखना एवं मानना है;
अंग्रेज या जमींदार किसी भी सरकार की कोई आज्ञा न मानना है एवं उसे मालगुजारी नहीं देना है;
सरकार या जमींदार के लिए बेगार की सेवाएं नहीं देना है।
लोगों में ये चेतना फैलाना जरुरी है कि सभी प्रकार के रोगियों की सेवा करना है और उन्हें बताना है कि चेचक, हैजा, मलेरिया, कुष्ठ रोग आदि देवी-देवताओं की देन या अभिशाप नहीं है बल्कि ये प्राकृतिक रोग हैं जिसे दवाएं खा कर एवं खानपान में परहेज कर खत्म किया जा सकता है।

इन उपर्युक्त आह्वान के साथ ही उन्होंने जिस ‘उलगुलान’ की घोषणा की थी उसमें “जनजाति के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ विद्रोह एवं जनजाति आदिधर्म और संस्कृति की रक्षा’ के लिए अभियान शामिल थे। वेे गांव- गांव जाकर मुंडाओं को संगठित करने लगे और रोगियों की सेवा करने लगे।” बिरसा के उपदेश सुनने के लिए अपार जनसमूह उमड़ने लगी। लोग उन्हें अब आबा (धरती के पिता) के नाम से पुकारने लगे।

उनके खिलाफ जमींदार के द्वारा थाना में राजद्रोह की शिकायत दर्ज कराई गई और जिसमें कहा गया कि बिरसा ने घोषणा की है कि सरकार का राज्य खत्म हो गया है। उनकी गिरफ्तारी के लिए 24 अगस्त,1895ई को पुलिस दल चालकाद भेजा गया और 26 अगस्त को उन्हें गिरफ्तार कर रांची लाया गया। गिरफ्तारी के समय हजारों लोग उनके साथ- साथ चल रहे थे। 18 नवंबर 1895 को उन्हें पचास रूपए जुर्माना और दो वर्ष की कैद की सजा सुनाई गई। 1897 ई में जब महानायक जेल से रिहा हुए। उस समय पूरा क्षेत्र भीषण अकाल के चपेट में था ।
वे अकाल पीड़ितों की सेवा में लग गए। उनकी सेवाओं के कारण लोग अब लड़ने मरने के लिए उनके साथ खड़े हो गए। उन्होंने अत्याचार,अन्याय के विरुद्ध संघर्ष और आदिधर्म के प्रति आस्था के पर्यायवाची शब्द उलगुलान को पुनः धार देना शुरू कर दिया। 1897ई में उन्होंनें तीर कमान लिए अपने 400 लोगों को लेकर खूंटी थाना को घेर लिया और वहां भीषण संघर्ष हुआ। अनेक लोगों को शहादत मिलीं। 1898 ई में तांगा नदी के किनारे अंग्रेजी सेना और मुंडाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेजी सेना बुरी तरह पराजित हुईं थीं। 24 दिसम्बर,1899 ई को जगह -जगह शाम के समय विद्रोह हो गया। जनवरी,1900ई में डोम्बारी पहाड़ी पर आबा बिरसा जब पुरुषों, महिलाओं एवं बच्चों की सभा को सम्बोधित कर रहे थे उसी समय अंग्रेजी सेना ने हमला कर दिया। वहां भी भीषण लड़ाई हुई। अनेक महिलाएं और बच्चे वहां शहीद हुए थे।

3 फरवरी,1900 को केवल 500रु की लालच में सात क़ौम के गद्दारों ने उन्हें सोयी हुई अवस्था में पकड़ कर बंदगांव में कैम्प कर रहे डिप्टी पुलिस कमिश्नर को सौंप दिया। उनकी गिरफ्तारी के बाद 400 से अधिक आदिवासी मुंडा क्रांतिकारियों को जगह -जगह मार दिया गया और 300 से अधिक लोगों को कारावासों में डाल दिए गए। जेल में 9 जून,1900ई के सुबह में उन्हें ख़ून की उल्टी हुई और 9 बजे जेल में ही उन्होंने अंग्रेजों की साजिश का शिकार होकर अपनी शहादत दे दी।

इस प्रकार महान शहीद और योद्धा आबा बिरसा ने भारत के मूलनिवासियों को जल,जमीन और जंगल के अधिकार तथा मूलनिवासी संस्कृति की रक्षा के लिए प्रथम स्वतंत्रता सेनानी महान शहीद तिलका मांझी और महान शहीद सिद्धु, कांहू, चांद, भैरव आदि सहित तमाम शहीदों के संघर्षों को आगे बढ़ाए और क्रांतिकारी मुहिम को अग्रगति दी।
उन सभी शहीदों ने अपनी शहादत से यहां के मूलनिवासियों को अधिकारों के प्रति जागरूक बनाया और सम्मान के लिए उन्हें जीना सिखाया। आज हम संकल्प लें कि हम मूलनिवासी बहुजनों के संवैधानिक अधिकारों को लागू कराने के लिए शहीद बिरसा की विरासत को आगे बढ़ाएंगे और भारत को एक समतामूलक-लोकतांत्रिक देश बनाएंगे। इस अवसर पर हम अपने महानायक को पुनः शत् शत् नमन और श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

–सामाजिक न्याय आंदोलन, बिहार
बिहार फुले अम्बेडकर युवा मंच
बहुजन स्टूडेंट्स यूनियन, बिहार