जब हम पर्यावरण संरक्षण और जलवायु संकट की बात करते हैं, तो एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण बार-बार उभरता है—इकोफेमिनिज्म– जो प्रकृतिवाद एवं नारीवाद जैसे दो अवधारणाओं को एक साथ जोड़ता है, यह विचारधारा बताती है कि प्रकृति और महिलाओं दोनों का शोषण एक ही ढांचे—पितृसत्ता और उपनिवेशवाद—द्वारा किया गया है। लेकिन जब इसी फ्रेमवर्क को भारतीय संदर्भ में लागू किया जाता है, तो एक अहम पहलू अकसर अनदेखा कर दिया जाता है—जाति।
भारत जैसे सामाजिक रूप से बहुस्तरीय समाज में प्रकृतिवाद और नारीवाद की कोई भी बात तब तक अधूरी है जब तक उसमें जातिगत संरचना और दलित-आदिवासी महिलाओं की भूमिका को शामिल न किया जाए। यही बिंदु हमें “दलित-आदिवासी इकोफेमिनिज्म” की ओर ले जाता है।
इकोफेमिनिज्म: अवधारणा और भारतीय विसंगति
“इकोफेमिनिज्म” शब्द 1974 में फ्रांसीसी विचारक Françoise d’Eaubonne द्वारा प्रस्तुत किया गया था। यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि प्रकृति और स्त्री दोनों पर समान रूप से पितृसत्तात्मक समाज द्वारा अत्याचार हुआ है।
भारत में वंदना शिवा और मेधा पाटकर जैसी हस्तियों ने इस विमर्श को आगे बढ़ाया, लेकिन इन्होंने ग्रामीण और शहरी महिलाओं की स्थिति पर तो बात की, परंतु सवर्ण और दलित-आदिवासी महिलाओं के अनुभवों में अंतर को अनदेखा किया।
जल-जंगल-ज़मीन की असली रक्षक महिलाएं
भारत के लगभग हर बड़े पर्यावरण आंदोलन में दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग की महिलाओं ने अग्रणी भूमिका निभाई है:
- चिपको आंदोलन (उत्तराखंड, 1973) में गौरा देवी जैसी बहुजन महिला ने नेतृत्व करते हुए दर्जनों ग्रामीण महिलाओं को संगठित किया और पेड़ों से लिपटकर जंगल की कटाई को रोका।
- नियामगिरि आंदोलन (ओडिशा, 2003–2013) में डोंगर देवी जैसी डोंगरिया कोंध आदिवासी महिलाओं ने वेदांता कंपनी के खिलाफ आंदोलन में भाग लिया और अपनी जमीन, जंगल और संस्कृति को बचाया।
- झारखंड और बिहार के जंगल बचाओ आंदोलन (1980 के दशक से) में संथाल और उरांव समुदाय की महिलाओं ने खनन, जंगल कटाई और विस्थापन के खिलाफ संघर्ष किया उदाहरणस्वरूप, झारखंड की बहुजन महिला नेत्री शांति उरांव और बिहार की मीरा देवी ने लोक चेतना को जागृत करते हुए ग्राम सभाओं के माध्यम से सामुदायिक अधिकारों की रक्षा की। इन महिलाओं का रिश्ता प्रकृति से केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक भी है। वे सिर्फ पर्यावरण की रक्षक नहीं, बल्कि अपने समुदाय की नेता और आंदोलन की नायक हैं।
ब्राह्मणवादी विमर्श में गायब बहुजन महिलाएं
जब पर्यावरण का इतिहास लिखा जाता है या इकोफेमिनिज्म पर चर्चा होती है, तो उसमें बहुजन महिलाओं—विशेषकर दलित और आदिवासी समुदायों की महिलाओं—का उल्लेख या तो बहुत सतही होता है, या पूरी तरह से गायब होता है। यह सिर्फ एक चूक नहीं, बल्कि ब्राह्मणवादी ज्ञान व्यवस्था की संरचनात्मक विफलता है।
इकोफेमिनिज्म, जो मूलतः महिलाओं और प्रकृति पर हो रहे शोषण को एकसाथ समझने की कोशिश करता है, वह भी अक्सर एक सवर्ण नारीवाद के ढांचे में सीमित रह जाता है। यह विमर्श ग्रामीण-शहरी या महिला-पुरुष के भेद को तो रेखांकित करता है, लेकिन जातिगत और वर्गीय विभेदों को नजरअंदाज कर देता है।
सामान्यीकरण की समस्या:
इकोफेमिनिज्म को “सभी महिलाओं” के अनुभव की तरह पेश किया जाता है, लेकिन “सभी महिलाएं” एक समान सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से नहीं आतीं एक सवर्ण महिला का पर्यावरण से रिश्ता और एक दलित या आदिवासी महिला का पर्यावरण से रिश्ता न केवल अलग है, बल्कि उनके संघर्ष की प्रकृति भी पूरी तरह भिन्न है। उदाहरण के लिए, संथाल, उरांव, डोंगरिया कोंध जैसी समुदायों की महिलाएं जल-जंगल-ज़मीन के लिए सीधे राज्य और कॉर्पोरेट हिंसा से जूझ रही हैं, जबकि सवर्ण महिलाओं के अनुभव अधिकतर नीतिगत या शहरी विमर्शों तक सीमित रहते हैं।
तीहरी लड़ाई का गैर-मौजूदगी:
बहुजन महिलाओं का संघर्ष तीन स्तरों पर होता है—जाति, लिंग और वर्ग के खिलाफ। लेकिन जब ज्ञान निर्माण ब्राह्मणवादी ढांचे से होता है, तो उसमें सिर्फ लिंग का पक्ष ही प्रमुखता से उभरता है, बाकी दो—जाति और वर्ग—को या तो नजरअंदाज कर दिया जाता है, या उसे गौण बना दिया जाता है।
बहुजन इकोफेमिनिज्म की जरूरत क्यों है?
दलित और आदिवासी महिलाओं के अनुभवों पर आधारित एक नया फ्रेमवर्क—बहुजन इकोफेमिनिज्म—की आज सख्त जरूरत है, जो निम्नलिखित बातों को मान्यता दे:
- उनकी पहचान केवल जाति या लिंग नहीं, संगठनकर्ता और विचारक के रूप में भी है।
- वे सिर्फ सहयोगी नहीं, नेता हैं।
- पर्यावरणीय संघर्ष उनके लिए अस्तित्व की लड़ाई है।
इसलिए ज़रूरत है कि इकोफेमिनिज्म को एक इंटरसेक्शनल दृष्टिकोण से देखा जाए, जहां हम यह स्वीकार करें कि सभी महिलाओं का अनुभव समान नहीं है, और विशेषकर बहुजन महिलाएं एक अलग, और कहीं अधिक जटिल लड़ाई लड़ रही हैं।

ऋतु, नेशनल जनरल सेक्रेटरी (AIOBCSA), सामाजिक कार्यकर्त्ता एवं विश्लेषक.