मैं लखबीर सिंह था

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मैं लखबीर सिंह था,
तुम्हारी तरह किसान–मज़दूर,
खेतों–खलिहानों में खून–पसीने बहाता,
पंजाब का एक आम दलित ।

दलित इसलिए मुझे कहना है,
क्योंकि मैं अगर जट्ट होता तो,
तुम मुझे अपने जैसा समझते,
मुझसे तुम्हें वैसी परेशानी नहीं होती ।

मेरा छूना केवल छूना नहीं रहा,
जब तुम पवित्र बने और मैं दूषित,
तुमने मुझे खुद से अलग समझा,
क्योंकि मैं लखबीर सिंह था ।

मैंने सोचा मजदूर–किसान के खून पसीने,
तपती धूप में सिंघु बार्डर पर लड़ते हुए,
जातियों की बेड़ियों को तोड़ चुकी होगी,
मगर तुमने उसे बिलकुल गलत साबित किया ।

लाठी–डंडा खाते वक्त खुद को तुम जैसा समझा,
तुम्हारी लड़ाई–मेरी लड़ाई बन गई ।
मगर नियत बदलते देर नहीं लगी तुम्हारी,
जब तुम्हें उच्चता सिद्ध करने की याद आई ।

भूल जाऊँ! यह चाहते हो न तुम,
चलो पूछता हूँ तुमसे मैं अब,
कबीर–रैदास के दोहे किस ग्रंथ में है ?
भाई जैता की वीरता क्या भूलने योग्य है ?

उत्तर की आशा है मुझे अपने समाज से,
मजहबी–वाल्मीकि–पासी–रविदासी,
आद धर्मी–चमार–भंगी–राम दासी से,
जो मेरे पंजाब का हर तीसरा व्यक्ति है ।

अगर तुमलोगो के पास उत्तर होगा ,
तो मेरे गाँव तरन-तारन भिजवा देना ,
कोई मेरी तस्वीर लिए अभी भी मेरा,
इंतजार कर रही है कि कब मैं सिंघु बॉर्डर से लौटूंगा,
खैर, मुझे लगता है कि जाओ देखो अभी भी,
तुम्हे कोई लखबीर सिंह इनकी मदद करता मिल जायेगा।

विकास कुमार,
शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय